अनुवाद: देश-दुनिया को देखने समझने का जरिया

न्यूमार्क कहते हैं कि- ''अनुवाद एक शिल्प है। जिसमें एक भाषा में लिखित संदेश की जगह पर दूसरी भाषा में उसी संदेश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है।''

दूसरे शब्दों में अनुवाद को कुछ इस तरह से समझ सकते हैं कि जब हम कोई पकवान खाते है और वह हमें अच्छा लगता है तो हम अपने मित्रों से भी कहते है कि आप भी चखो मजा आएगा। तो अनुवाद भी ऐसे ही कहने का एक तरीका है कि मुझे यह किताब या ग्रंथ उस भाषा में मिली है जिसे मैं समझता हूं। इसलिए आप भी इसका उतना ही आनंद ले सकते हैं।

अब सवाल यह उठता है कि हमें अनुवाद क्यों करना चाहिए? तो इसका जवाब बहुत ही आसान सा है कि अनुवाद हमारे लिए दुनिया की अनेक प्रकार की खिड़कियां और दरवाजें खोलता हैं, जिससे हम अन्य देशों की  संस्कृति, राजनीति, आर्थिकी, रहन-सहन इत्यादि के बारे में जानते और उनसे प्रभावित होते हैं। साथ ही अन्य विचारों से हम जुड़ते है और विचारों को अपनाते है। एक तरह से कहें तो हम वैश्विक जुड़ाव की ओर बढ़ते हैं। अनुवाद भारत जैसे देश में भी यही जुड़ाव का काम करता है क्योंकि यहाँ उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक विभिन्न प्रकार की भाषाएं और बोलियां हैं। हालांकि बहुत समय से भारत में बेहतर अनुवाद प्रणाली की कमी रही है जिससे भारत जैसे एक राष्ट्र में कई उप-राष्ट्रीयताएं देखने को मिली है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्वोत्तर भारत है। इस क्षेत्र की हमेशा से शिकायत रही है कि भारत उसे अपनी मुख्य भूमि का भाग नहीं समझता है। इसलिए देश में एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखित ग्रंथों का अनुवाद जरूरी है। खासकर उन भाषाओं से अधिक अनुवाद करना चाहिए जिनका देश में कम प्रतिनिधित्व है, जैसे बोडो, नेपाली, संथाली, कुकी, मेइती इत्यादि।


अनुवाद की बाधाओं की बात करें तो- क्योंकि अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण है इसलिए पाठकों के लिए यह जानना बहुत कठिन होता है कि लेखक लेखन के क्रम में उस तक जो सही भाव या अर्थ और इरादा पहुंचाना चाहता था वह उस तक पहुंचा या नहीं। साथ ही भाषाएं विभिन्न धर्म, संस्कृति, इतिहास और भूगोल से निकलती हैं जिससे शब्दों के अर्थ और संदर्भ देशकाल के अनुसार बदलते रहते हैं। तो क्या अनुवादक इन सब बातों को ध्यान में रखकर पाठक तक सही अर्थ और संदर्भ दे पा रहा हैं जैसा लेखक कहना चाहता था। उदाहरण के लिए हिंदी का एक शब्द सत्तू लेते हैं जिसे किसी हिंदी लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है। अब यदि किसी भाषा में इसका अनुवाद करते समय केवल सत्तू ही लिख दिया जाता हैं तो गैर हिंदी भाषी पाठक को इसका भाव समझने में कठिनाई हो सकती है। क्योंकि सत्तू केवल एक क्षेत्र विशेष में बोला जाने वाला हिंदी शब्द है जिसके अन्य नाम सेतुआ(भोजपुरी), सोतू(कश्मीरी) इत्यादि हैं।


अनुवाद के इन समस्याओं से निपटने के लिए एक रणनीति यह हो सकती है कि शब्दों का संदर्भ और अर्थ स्पष्ट किया जाए। जैसे- सत्तू का अर्थ या संदर्भ चना, मकई और जौ वगैरह को भूनने के बाद उसको पीसकर बनाए गए एक प्रकार के चूर्ण से लिया जाता है। इस समस्या के समाधान का एक और बेहतर तरीका यह हो सकता है कि अनुवादक द्वारा ज्यादा से ज्यादा फुटनोट का प्रयोग किया जाए।

भारत के अनुवाद बाजार को देखें तो यह पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत छोटा लगता है। साथ ही भारत में पुस्तक प्रकाशन उद्योग, व्यापार प्रकाशन उद्योग में अनेक अनियमितताएं और कमियां है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पुस्तकों का अनुवाद बड़ी जल्दबाजी में ऊलजलूल कर दिया गया है। इसका एक प्रमुख कारण भारत की प्रकाशन एजेंसी में उनके संपादकीय विभाग में कर्मचारियों की कमी है। 

इसका अन्य कारण मौद्रिक प्रोत्साहन की कमी है क्योंकि यहां अनुवादकों को  पर्याप्त और एक मुश्त पैसे नहीं मिलते हैं। ज्यादातर मामलों में रॉयल्टी प्रणाली लागू होती है जैसे कि मूल भाषा में लिखी किसी पुस्तक पर। इस प्रणाली के अंतर्गत कवर पेज पर अंकित मूल्य का 8 से 10 प्रतिशत रॉयल्टी लेखक को मिलती है, यह प्रतिशत बताता है कि लेखक कितना कमाता है। वहीं अनुवाद के मामले में लेखक और अनुवादक के बीच रॉयल्टी साझा की जाती है जिससे यह राशि और कम हो जाती है। जैसे कि पेंग्विन प्रकाशन एजेंसी द्वारा गाँधी सीरीज की पुस्तकें प्रकाशित की गयी हैं। जिसके लेखक रामचन्द्र गुहा हैं। जो कि मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गयी हैं। इस सीरीज के हिंदी अनुवादक सुशान्त झा का कहना है कि भारत में अनुवादकों को वह इज्ज़त और पैसा नही मिलता है जितना कि पश्चिमी देशों में है। यहाँ एक अनुवादक केवल एक मध्यम आय के परिवार की तरह ही जीवन बिता सकता है। इसलिए भी अनुवादकों को वह प्रेरणा नहीं मिलती है जिससे कि वह इसको अपना प्रोफेशन बनायें।

अनुवाद को बढ़ावा देने लिये और आगे का रास्ता अपनाने के लिए हमें केवल प्रकाशन कंपनियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए अधिक से अधिक सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों को यह काम अपने जिम्मे लेना चाहिए। सरकारें चाहे वह राज्य सरकार हो या फिर केंद्र सरकार, को विभिन्न भाषाओं में अनुवाद को बढ़ावा देने के लिए योजना बनानी चाहिए जैसे कि विभिन्न शिक्षण संस्थानों में अनुवाद के लिए समर्पित विभाग बनाना और इस दिशा में रिसर्च के लिए स्कॉलरशिप प्रदान करना चाहिए। 

साथ ही वर्तमान में इस दिशा में कार्य कर रहे संस्थानों को वित्तीय सहायता और निवेश को बढ़ावा देना चाहिए जैसे 'द मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया' जो अनुवाद के लिए रोजगार देने और उसे प्रकाशित करने का काम करती है। इसके अलावा यदि अनुवादकों को उनके प्रयास और काम के लिए समुचित भुगतान किया जाए तो हमें विभिन्न भाषाओं से और भी अधिक गुणवत्तापूर्ण अनूदित रचनाएँ मिल सकेगीं।

हालांकि साहित्य अकादमी ने बीते कुछ सालों में भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी के साथ अन्य भाषाओं के बीच व्यापक अनुवाद कार्यों को बढ़ावा दिया है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। 24 भाषाओं में दिया जाने वाला साहित्य अकादमी पुरस्कार देश में प्रतिष्ठित और उत्कृष्ट पुरस्कारों में से एक है। अकादमी का देशव्यापी नेटवर्क है, इस तरह के अन्य व्यापक समर्थन और नेटवर्क वाले संस्थान या एजेंसियां अनुवाद की दिशा में महत्वपूर्ण काम कर सकती हैं।

इन सब बातों से भी बढ़कर हम सब में अपने पड़ोस, देश और दुनिया के बारे में जानने की ललक और जिज्ञासा होनी चाहिए। हमें अपने देश की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन को जानने के लिए भी हमेशा उत्सुक रहना चाहिए और अनुवाद को देश-दुनिया को समझने के माध्यम के रूप में देखना चाहिए। यदि हम ऐसा नही करेंगें तो देशिक-वैदेशिक स्तर पर शायद कभी भी एक नहीं हो सकेंगें।

रोहित कुमार पटेल(आईआईएमसी दिल्ली)

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